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वास्तु

वास्तु शास्त्र

वास्तु शास्त्र हमारे आस-पास की सकारात्मक शक्ति ( Positive Energy ) के संग्रहण की प्रक्रिया है, जिससे नकारात्मक शक्ति ( Negative Energy ) को प्रवेष नही करने देती है । आज के युग मे मनुष्य का जीवन भाग-दौड भरा हो गया है । उसके पास प्राकृतिक रूप से खुले में घुमने-फिरने का समय नही है । इस व्यस्तम जिंदगी में वह सीधा घर से आॅफिस तथा आॅफिस से घर की चार दिवारो में कैद होकर रह गया है । जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में ग्रहों का अपना महत्व होता है और वह ग्रह व्यक्ति की कुंडली अनुसार सकारात्मक या नकारात्मक उर्जा प्रदान करते है उसी प्रकार भवन को भी हमारे महर्षियों ने जीवित जीव मानकर उसमे स्थापित की जाने वाली वस्तु या निर्माण करते समय वास्तु नियमो का पालन किया जाना आवश्यक माना है । ताकि उससे निकलने वाली उर्जा सकारात्मक हो जिससे उस घर मे रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति आनन्दित, खुश एवं सकारात्मक उर्जा से ओतप्रोत हो । भवन के प्रमुख देवता वास्तु पुरूष है । इनका मस्तक ईशान्य में एवं पैर नैऋत्य में रहते है। वास्तु पुरूष वेदोक्त देव हैं । वास्तु देवता का संबंध गृह देवता के साथ है ।इसलिए एक घर के भीतर विभिन्न दिशाएं अलग-अलग देवताओं की हैं। ईश्वर उत्तर-पूर्व ( ईशान्य कोण ) दिशा की देखभाल करते है जिसे हम पूजा या प्रार्थना कक्ष बना लेते है । दक्षिण-पूर्व ( आग्नैय कोण ) दिशा की उचित देखभाल अग्नी देवता करते हैं इसलिए वहां पर रसोई घर बनाया जाता है । दक्षिण-पश्चिम ( नैऋत्य कोण ) यह राक्षसी या पितृ देवता की दिशा मानी जाती है ।इसलिए यहाॅं स्टोर या कबाड का स्थान बना लेते है । इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम   ( वायव्य कोण ) दिशा की देखभाल वायु देवता करते है । इसका ग्रह चन्द्रमा है । इसलिए यहां अन्नागार या जल संग्रहण करते हैं । इसी प्रकार आठो दिशाऐं अलग-अलग देवताओ या ऊर्जा से संबंधित हैं।
यदि आपका स्थान वास्तु शास्त्र के निर्देशों का पालन करते हुए बनाया गया है तो आपके जीवन में शांति, प्रगति का अखंड रूप से झरना बहता रहेगा । आपकी गृहस्थी आनन्द पूर्वक चलेगी । आप मानसिक रूप से प्रबल होंगे । आप अपने जीवन में महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करेेगे । परिवार के सदस्यों के साथ आपके व्यक्तिगत संबंध अच्छे रहेंगे । आर्थिक स्थिति सुदृढ होगी ।