मेरे गुरु- स्वामी रामकृष्ण परमहंस
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
ध्यान मूलं गुरु मूर्ति पूजा मूलं गुरु पद्म । मंत्र मूलं गुरु वाक्यं मोक्ष मूलं गुरु कृपा ।।
समर्पण –
जिनकी अहेतुकी कृपा से संसार के अनेकानेक जीवों का उद्धार हो गया, जिनकी शक्ति से सम्पन्न होकर श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्द जी ने विश्व में सनातन धर्म की पताका पहराई, जिनकी कृपा-दृष्टि से मेरे जैसे पामर और कितने ही जनों का कल्याण किया उन ’’परम पूज्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव के श्री चरणों में यह लेख पुष्प सादर समर्पित है ।’’
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् । एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् भवातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥
मित्रों मनुष्य को जन्म से ही किसी न किसी गुरू की आवश्यकता होती है । और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सबसे पहले मनुष्य के माता-पिता ही उसके गुरू होते हैं, जो उसका लालन-पालन करते हैं और उन्हीं की नीम सी ठंडी छांव में रहकर मनुष्य बोलना, चलना, खाना-पीना, सांसारिक ज्ञान आदि दैनिक कार्यों को सीखने के साथ-साथ श्रेष्ठ संस्कार भी सीखता हैं । उसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में, कार्य के क्षेत्र में आदि व्यक्ति से हम कुछ न कुछ सीखते हैं, और वे हमे सीखाते हैं हमारा मार्ग दर्शन करते हैं, वै सब गुरू तुल्य आदरणीय एवं सम्मानीय होते हैं । मैने अपने जीवन में कई लोगो से कुछ न कुछ सीखा है जो मेरे लिए आदरणीय है । उसके बाद मैने पं. अशोकजी त्रिपाठीजी से ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त किया उनके चरणों में बैठकर मैने ज्योंतिष सीखा । मैने अपने पिता से तंत्र-मंत्र की दिक्षा ली और उनके सांनिध्य में कार्य किया।
किन्तु जीवन में आध्यात्मिक गुरू की खोज मेरे अंर्तरंग में चलती रही। क्योंकि गुरू ही आध्यात्मिक उन्नति, सांसारिक सुख दुखों से परे, आत्म ज्ञान और आत्म साक्षात्कार कराने में अहम भूमिका निभाते हैं । कठिन तपस्या से दैवी कृपा प्राप्त करवाकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। उस आत्मा कोजन्म-मरण से मुक्त करा देते हैं । इसलिए शात्रों में गुरू को ईश्वर से भी बडा आदर एवं सम्मान दिया गया है । किन्तु इस युग में सदगुरू मिलना बडा कठिन कार्य हो गया है । वैसे मैने कई संतो को सुना-पढा किन्तु मन में जिस प्रकार के गुरू की छवि बना रखी थी वैसा मुझे कोई मिला नहीं । बहुधा तो ऐसे व्यक्ति मिलते हैं जिन पर श्रद्धा होती ही नहीं और हो भी जाती है तो जल्दी ही घृणा में बदल जाती है। यों पृथ्वी बीजरहित तो कभी नहीं रहती और वास्तव में गुरु पद पर सुशोभित होने वाले महानुभाव भी होते हैं तथा वो किसी न किसी को भाग्य से मिल भी जाते हैं। जैसे बंगाल में भगवान रामकृष्ण परहंस अवतीर्ण हुए, जिनके मुख्य शिष्य स्वामी विवेकानन्दजी ने समस्त विश्व में हिन्दू धर्म की पताका फहराई थी । महाराष्ट में सन्त तुकाराम, सन्त ज्ञानेश्वर और नामदेवजी, आचार्य श्रीराम शर्मा तथा समर्थ गुरू रामदासजी उल्लेखनीय है।
वैसे मैं अपने नित्य पूजन में ईष्टदेवी माँ काली से यह याचना करता था कि मुझे भी किसी सदगुरू से मिला दे । रामचरित्र मानस में एक चैपाई है कि ’’बिनु हरि कृपा मिलई नहीं संता’’ अर्थात बिना ईश्वरीय कृपा के सदगुरू की प्राप्ति नहीं होती । और सद्गुरू मिल जाते हैं तो वे ईश्वर के दर्शन करा देते हैं। और फिर हमे यह कहना पडता है कि-
गुरू गोविन्द दोउ खडे काके लागू पांय। बलिहारी गुरू आपकी गोविन्द दियो बताय।।
फिर जीवन में कुछ ऐसा घटा की मैने स्वामी विवेकानन्द के सम्बंध में जाना उनके माध्यम से ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के बारे में जाना और मन ने यह कहा कि हां यही सदगुरू हो सकते हैं । गुरू कोई हाड मास का बना पुतला नहीं हो सकता । और गुरू हाडमास का हो यह आवश्यक भी नहीं है, गुरू तो तत्व होता है । पूरी पृथ्वी गुरूत्वाकर्षण के बल कारण टिकी हुई है।
अतः माँ के आदेशानुसार भगवान रामकृष्ण परमहंस जी को अपना आध्यात्मिक गुरू मानकर माँ काली के बीज मंत्र की दिक्षा ली तथा उन्हें ही अपना आध्यात्मिक गुरू मानकर स्र्वस्व सौंप दिया । जिनकी कृपा मात्र से इस तुच्छ पामर का जीवन ही बदल गया है । जिसका वर्णन तुच्छ जिव्हा से नहीं किया जा सकता ।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
संक्षिप्त परिचय
रामकृष्ण परमहंस ने पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर नामक ग्राम के एक दीन एवं धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फरवरी, सन् 1836 ई. में जन्म लिया। बाल्यावस्था में वह गदाधर के नाम से प्रसिद्ध थे। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। रामकृष्ण परमहंस ने जगन्माता की पुकार के उत्तर में गाँव के वंशपरंपरागत गृह का परित्याग कर दिया और सत्रह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ ठहर गए, और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया।
रामकृष्ण परमहंस भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। माँ के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। अंत में उनकी प्रार्थना सुन ली गई और जगन्माता के दर्शन से वे कृतकार्य हुए। किंतु यह सफलता उनके लिए केवल संकेत मात्र थी। परमहंस जी असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुँच गए जहाँ से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे।
गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था। उनकी बालिका पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आयीं तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है? परमहंस जी कहा करते थे- जो माँ जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं। ये विचार उनके अपनी पत्नी माँ शारदामणि के प्रति थे।
एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा सन्न्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया। परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है, किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते। परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी कृतार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान भी प्रभावित थे। जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्रायः समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ। जीवन के अन्तिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा की। उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील सन्न्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। उनकी जगन्माता की निष्कपट प्रार्थना के फलस्वरूप ऐसे सैकड़ों गृहस्थ भक्त, जो बड़े ही सरल थे, उनके चारों ओर समूहों में एकत्रित हो जाते थे और उनके उपदेशामृत से अपनी आध्यात्मिक पिपासा शांत करते थे।
आचार्य के जीवन के अंतिम वर्षों में पवित्र आत्माओं का प्रतिभाशील मंडल, जिसके नेता नरेंद्रनाथ दत्त (बाद में स्वामी विवेकानंद) थे, रंगमंच पर अवतरित हुआ। आचार्य ने चुने हुए कुछ लोगों को अपना घनिष्ठ साथी बनाया, त्याग एवं सेवा के उच्च आदर्शों के अनुसार उनके जीवन को मोड़ा और पृथ्वी पर अपने संदेश की पूर्ति के निमित्त उन्हें एक आध्यामिक बंधुत्व में बदला। महान आचार्य के ये दिव्य संदेशवाहक कीर्तिस्तंभ को साहस के साथ पकड़े रहे और उन्होंने मानव जगत की सेवा में पूर्ण रूप से अपने को न्योछावर कर दिया।
’’मेरे गुरूदेव’’-स्वामी विवेकानन्द